लोगों की राय

यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

बिखरे केन्द्र


कनानोर से कालीकट जाते हुए रास्ते में मैं तेल्लीचेरी स्फेशन पर उतर गया। यह एक सनक ही थी। कनानोर से चल देने का निश्चय अचानक ही कर लिया था। मुझे वहाँ रहते तब कुल सत्रह दिन हुए थे। उस दिन सुबह सोकर उठा, तो मन कुछ उचाट-सा था। लग रहा था जैसे वहाँ रहते बहुत दिन हो गये हों और अब वहाँ और रह सकना असम्भव हो। अनदेखे स्थानों का आकर्षण फिर मन पर छा गया था। आश्चर्य हो रहा था कि मैं इतने दिन भी कनानोर में कैसे रह गया। उसके बाद थोड़ी ही देर में सामान बँध गया और मैं कालीकट का टिकट लेकर गाड़ी में सवार हो गया।

पीली रेत-दूर दूर तक फैली हुई। नारियलों के घने झुंड और नंगी रेत। समुद्र का नीला पानी और चिकनी रेत। खिड़की से दिखाई देती वह तट की रेत इतनी आकर्षक लग रही थी कि मन हुआ उसे पास से देखने के लिए क्यों न वहीं कहीं उतर पड़ूँ? क्या पता आगे कहीं रेत उतनी पीली, उतनी चिकनी और उतनी एकान्त मिलेगी या नहीं। जब गाड़ी तेल्लीचेरी स्टेशन पर रुकी, तो मैंने बिना ज्यादा सोचे अपना सामान गाड़ी से उतरवा लिया।

डेढ़-दो का समय था। गाड़ी चली गयी, तो प्लेटफ़ॉर्म और पटरियों पर फैली धूप को देखकर मुझे वहाँ उतर पड़ने के लिए अफ़सोस होने लगा। पूछने पर पता चला कि उस स्टेशन पर क्लोक रूम भी नहीं है जहाँ सामान छोड़कर घूमने जाया जा सके। मगर उतर पड़ा था, इसलिए सामान एक पोर्टर के सुपुर्द करके हाथ जेबों में डाले स्टेशन से बाहर निकल आया। पीली रेत और उसके आकर्षण की बात तब तक भूल चुका था।

चारों तरफ़ खुली धूप फैली थी। एक रिक्शावाले ने पास आकर पूछा, "जगन्नाथ गेट?"

मैंने उससे पूछा कि यह जगन्नाथ गेट कौन-सी जगह है?

"वर रुपिया आर आणा," वह बोला।

मैंने कनानोर में रहते मलयालम की एक से दस तक की गिनती सीख ली थी। जो उसने कहा उसका मतलब था 'एक रुपया छह आना।'

मैंने इशारों से समझाने की कोशिश करते हुए उससे फिर पूछा कि जगन्नाथ गेट कौन-सी जगह है?

"वर रुपिया नाल आणा," वह बोला। इसका मतलब था, "एक रुपया चार आना।"

"ठीक है, चलो।" कहकर मैं रिक्शा में बैठ गया। सोचा कि एक रुपया चार आना ख़र्च करके किसी अनजान जगह पर ले जाया जाना अपने में बुरा अनुभव नहीं है।

रिक्शा सँकरे रास्ते में से होता हुआ चलने लगा। दोनों ओर के घर छह-छह आठ-आठ फुट ऊँची ज़मीन पर बने थे। हम एक तरह से दो दीवारों के बीच बनी गली से होकर जा रहे थे। उस धूप में भी उन गलियों में से गुज़रते हुए एक ठंडक-सी महसूस होती थी। आख़िर एक ऐसी जगह पहुँचकर जहाँ एक ओर दुकानें थीं और दूसरी ओर खुला मैदान, रिक्शावाले ने रिक्शा रोक दिया। मैदान की तरफ़ इशारा करके उसने मुझे एक पगडंडी दिखाई और इशारे से कहा कि मैं उस पगडंडी से आगे चला जाऊँ।

"मगर यह पगडंडी जाती कहाँ है?" मैंने भी इशारों से ही उसे अपना मतलब समझाने की कोशिश की।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book